नारीवाद का प्रतिरोध नारीवाद या नारी अधिकार वाद के स्वाधीन राजनीतिक सिद्धांत के रूप में मान्यता देना कठिन है। अधिक से अधिक यह एक विचारात्मक आंदोलन है जिसके साथ जुड़े हुए विचारों को स्वतंत्रता, समानता और न्याय के सिद्धांत के रूप में स्वीकारा जा सकता है। इस सामान्य सिद्धांत के संदर्भ में यह पुरुष के मुकाबले नारी की स्थिति, भूमिका और अधिकारों से गहरा सरोकार रखता है। नारी पराधीनता और नारी के प्रति होने वाले अन्याय पर ध्यान केंद्रित करता है और इसके प्रति कारों के उपायों पर ध्यान केंद्रित करता है। इस बात का दावा है कि अतीत और वर्तमान समाजों में स्त्रियों को अपने स्त्रीत्व के कारण अन्याय सहन करना पड़ा है और आज भी उनके साथ अन्याय हो रहा है।
ऊपर के विचारों के खंडन स्वरूप हम यह कहना चाहते हैं कि अतीत में भी हमारे देश और विश्व के अन्य भागों में नारियों को सम्मान मिला है। जैसे कि रूस की महारानी कैथरीन महान् थी इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम, महारानी विक्टोरिया एलिजाबेथ द्वितीय, चीन में राजमाता जोशी, भारत में रजिया सुल्तान रानी लक्ष्मीबाई जैसे तमाम उदाहरण हैं जो यह पुकार-पुकार कर कह रहे हैं कि पुरुषों द्वारा सदैव नारी को सम्मान मिला है। और वर्तमान में पुरुषों के समान ही अपने यहाँ दर्जा दिया जाता है। लेकिन बड़ा दुखद है कि जो नारीवाद नारी का उत्थान करना चाहता था वही नारियों और संपूर्ण समाज के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। पुरुषों और स्त्रियों के मध्य वर्ग संघर्ष का कारण बन गया है। आज के समाज में युवा पीढ़ी में स्त्री पुरुष एक दूसरे के सामने प्रतिद्वंदी बनकर खड़े हो गए हैं।
समाज के लिए घातक दहेज कानून दहेज कानून के तहत या उसके परिवार के सदस्यों को तब तक दोषी माना जाता है जब तक वह कोर्ट से अपने आप को निर्दोष साबित नहीं कर लेते । ऐसे आरोप हैं कि ढेर सारे मामलों में ऐसा हुआ कि जब कोई व्यवहारिक समस्याएं हैं तो पत्नि या उसके रिश्तेदारों ने पति और परिजनों को अक्सर झूठे मामलों में फंसा दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि यह गलत है। सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में एक फैसले में कहा था कि यह कानून असंतुष्ट महिलाओं के हाथों में हथियारों के समान बन गया है। उसने यह भी कहा था कि धारा 498 ए पर संसद को फिर से विचार करने की जरूरत है । अंत में हम यह कहना चाहते हैं कि समाज के दोनों वर्ग में कोई भी ऊंचा या निम्न नहीं है, बल्कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं,उसमें किसी वर्ग को कानून द्वारा बल प्रदान करना समाज के हित में नहीं है और यह स्वतंत्रता, समानता और न्याय का खुला विरोध है । 1 वर्ग को इतना शक्ति देना दूसरे वर्ग को शक्तिहीन करना मूल अधिकारों के भी विपरीत है। इसी कानून का सहारा लेकर स्त्री वर्ग दो चक्का वाहनों पर तीन सवारी बैठाकर जाती हैं, जहां रुकने का इसारा मिलता है ट्रैफिक पुलिस के द्वारा, वहां भी नहीं रुकती। हेलमेट तो जैसे लगता है कभी देखा ही नहीं अर्थात कभी नहीं लगाते । हमेशा लाइन में खड़े होने की जगह लाइन तोड़कर पहले अपना कार्य करना चाहते हैं। अतः दोनों वर्गों को अपने कर्तव्य की जानकारी हो वही उचित है। मात्र अधिकार से समाज नहीं चलता, कर्तव्य का ज्ञान भी होना आवश्यक है।
- अमित कुमार द्विवेदी