डॉ. सुमन सिंह की चार कविताएँ

 

1. वे सचमुच बदल गए

गले में फ़ांस की तरह करकती रही पत्नी
पीछा छुड़ा भटकते रहे शहर दर शहर
इतिहास के पन्ने पलटते कहते
स्त्रियाँ सदैव से रही हैं विवाद का दुखद कारण
मोहिनी, मायाविनी, विनाशिनी, त्याज्य
जिन्होंने त्यागा महात्मा बन गए
कनखियों से देखते उन झुकी डब-डब आँखों को
थाहते उनकी पीड़ा की गहराई, प्रसन्न हो जाते
कभी दाल में ज़्यादा नमक
और कभी सब्ज़ी का फीकापन
पागल बना देता उन्हें
थाली फेंक फुफकारते
आँकते-काँपते शरीर का थरथर डर
आह्लादित हो जाते
कभी बच्चों के ख़राब अंकपत्र
कभी अव्यवस्थित घर
उनके रक्त में उबाल ला देता
तिलमिलाते, गरियाते जीभर
और उस ग्लानि से भरी स्त्री की दुर्बलता मापते
गर्व से फूलते आनंदित हो जाते
घर युद्ध क्षेत्र बन जाता और वे अजेय योद्धा
उनके आधिपत्य में वह पत्नी नामक अधम जीव कांपता
उनके पौरुष से सहमता
सान्निध्य से छटपटाता, वे संतुष्ट हो जाते
आज बरस बीत गए हैं
वही घर-आँगन है पर वे अब बदल गए हैं
अब किसी को डराते-सहमाते नहीं
खुद डरे-सहमे रहते हैं
पत्नी अब नहीं रही
तो उसके वियोग में पागल हो गए हैं
फूट-फूट कर रोते हैं, सारी रात जागते हैं
लोग कहते हैं
वे अब पहले जैसे नहीं रहे
पत्नी से प्यार करने लगे हैं शायद।
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2.दुःख नहीं चीन्हता स्त्री या पुरुष

दुःख कहाँ देखता है स्त्री की कमनीयता
या कि पुरुष का पौरुष
आता है तो दोनों को ही बिलखाता है
करकता है कलेजे में
टपकता है आँखों से
झुलसाता है रंग-रूप
छीनता है चैन-सुख
दुःख नहीं चीन्हता है स्त्री या पुरुष
पर जाने यह किसका रचा हुआ नियम है जो
दुःख की भयावहता पर भी भारी है
जिसमें स्त्रियों का रोना तो सर्वग्राह्य है
और पुरुषों का रोना सार्वजानिक धिक्कार।

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3.सुनो लड़की

सुनो लड़की
बहुत हो चुका घुट-घुट कर अँधेरे में रोना
आँसुओं से तन-मन भिगोना
चलो उतार दो चेहरे से यह तथाकथित आदर्शों का रंगरोगन
ये वापस नहीं ला सकते तुम्हारी देह की सुंदरता
चेहरे की मोहकता, तुम्हारी आँखों की मादकता
तुम्हारे यौवन की अल्हड़ता
ये कभी लौटा नहीं पाएंगे तुम्हारे जीवन के अनगिन पल
जिनमें तुम खिलखिलाकर हँसना चाहती थीं
तितलियों के पीछे भागना चाहती थी
बाहें फैला झूम-झूम नाचना चाहती थी
ये भर देंगे तुम्हें जटिलताओं से
तुम्हारी आत्मा पर लाद देंगे शुचिता का बोझ
तुम्हारे होंठों पर जड़ देंगे संकोच की साँकल
तुम्हारी आँखों पर बाँध देंगे लाज का आवरण
अंततः लहूलुहान होने को ढकेल देंगे बौराई भीड़ में
भीड़ नोचेगी, खसोटेगी, लूटेगी
फिर भी यदि मन नहीं भरा तो लेगी अग्निपरीक्षा
बचो लड़की एक और वैदेही बनने से
देखो न इस सजे-धजे कफ़न बंधे शवों को
जो कभी तुम्हारी तरह ही सजीव थे
अब इन्हें फूंको या फेंक आओ किसी नदी-नाले
फ़र्क़ नहीं पड़ता
समझो इनके और अपने बीच के अंतर को
शव नहीं हो तुम, तुम्हें फ़र्क़ पड़ता है
सपनों के टूटने से, इच्छाओं के दरकने से
सुनो, समेट लो अपने जीवन की आँखों में
कुछ मासूम, सुन्दर, चंचल सपने
कि जीना है तुम्हें मर जाने से पहले।

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 4.मैं डरती हूँ

मैं डरती हूँ अपनी बढ़ती उम्र की
पल-पल समझदार होती जा रही आँखों से
कि कहीं वे पकड़ न लें
मेरे आत्मीयों के चेहरों का क्रूर पाखंड
भाँप न लें
बोली की मिठास से झरते
शब्दों की विषाक्तता
समझ न लें
मोहक आवरण में छिपे
प्रेम का अभीष्ट
डरती हूँ
उन संवेदनाओं को शब्दबद्ध करने से
जिनका सच नहीं स्वीकारा जाएगा
और बना दिया जाएगा जीवन को
मृत्यु से भी भयावह।
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  • डॉ सुमन सिंह (वाराणसी)

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