साधना और अनुभव की चासनी से सराबोर ‘साथ गुनगुनाएंगे’

जैसा कि हम सभी को यह ज्ञात है कि यह अरबी साहित्य  की प्रसिद्ध काव्य-विधा  है जो बाद में फारसी,उर्दू नेपाली और हिन्दी साहित्य और भोजपुरी साहित्य  में भी बेहद लोकप्रिय हुई। अरबी भाषा के इस शब्द का अर्थ है औरतों से या औरतों के बारे में बातें करना।परंतु समय के साथ इसके फ़लक में जबरजस्त विस्तार हुआ। दुष्यंत कुमार ने गजल की विषय वस्तु में सामाजिक-राजनैतिक जिंदगी का सच पिरोकर उसे जो विस्तार दिया था, उसे एडम गोंडवी ‘बेवा के माथे कि शिकन’ तक ले गए । कहने का तात्पर्य यह कि आज…

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ऐ मेरी दुखमयी रातें

ऐ मेरी दुखमयी रातें क्यों बिलखकर रो न लेती ? हैं  उमड़ते  मेघ  तेरे  इस  हृदय  स्नेहिल  पटल  पर टूटते मिटते गरजते हैं बिखरते इस अचल पर क्यों न तुम खुद के बरसकर इस नयन में हो न लेती ऐ मेरी दुखमयी रातें क्यों बिलखकर रो न लेती ? क्षण भर उजाला बस लिए आकाश में बिजली चमकती वेदना के फिर अँधेरों में मेरी रातें सिमटती सिसकियाँ भर कर लिपटकर गोद में क्यों रो न लेती ऐ मेरी दुखमयी रातें क्यों बिलखकर रो न लेती ? खिड़कियों से झाँक आ…

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बुजुर्गों का ख़्याल रखना हमारा कर्तव्य

किसी ने सच ही कहा है कि हम सब कुछ बदल सकते है, लेकिन अपने पूर्वज नहीं। उनके बिना न ही हमारा वर्तमान सुरक्षित है और ना ही भविष्य की नींव रखी जा सकती है। हमारे पूर्वज ही इतिहास से भविष्य के बीच की कड़ी होते है। इन सबके बावजूद अफ़सोस की आज हम अपने पूर्वजों का सम्मान तक नहीं कर पा रहे है और न ही उनकी दी हुई सीख पर अमल कर पा रहे हैं। मातृ देवों भवः, पितृ देवों भवः से अपने जीवन का आरम्भ करने वाला…

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अपनापन तलाशने वाली स्त्री के सफरनाने का दूसरा नाम है ‘स्त्री का पुरुषार्थ’

पुरुषार्थ हर मनुष्य का सत्य है। यह लक्ष्य हर मानव जीवन का है। जिन चार पुरुषार्थ का नाम लिया जाता है, उन्हें संसार भर की स्त्रियां पुरुषों से कहीं अधिक जीती है। जिसे पुरुषार्थ चतुष्टय कहते हैं, उन्हें हासिल करती हैं। चार्वाक दर्शन हो या महर्षि वात्सयायन, उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म, अर्थ और काम का निर्वहन करते हुए वह हमेशा आगे बढ़ती रही है। अपना स्त्री धर्म निभाती रही है। इसी तरह अर्थ का तात्पर्य सिर्फ अर्थ से नहीं उस जीवन संघर्ष से है, जिससे गृहस्थी चलती है और सामाजिक…

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कैसे जन्म दूं कविता? 

तुम्हें कैसे जन्म दूं कविता, पहले उस प्रसव पीड़ा से मुझे गुजरने तो दोे, जिससे जन्मती है कविता। कुम्हार की चाक पर मिट्टी सा मुझे गढ़ने दो फिर आग में झोंक कर कुछ दिन पकने तो दो, फिर रचूंगी कोई कविता। ब्रह्मांड की परिक्रमा कर मुझे आने दो अभी, तारों और पृथ्वी का तालमेल तो समझने दो। प्रेमिकाओं का विरह जीने दो, प्रेम में लालायित होने दो, प्रेमी के प्रथम स्पर्श का अहसास तो होने दो, फिर रचूंगी कविता। बच्चों को पहला कदम रखते हुए मुझे निहारने दो, आत्मा को…

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मैं ढूँढ रहा हूँ

मैं निरंतर हूं कश्मकश में, अजीब सी ऊहापोह में ढूंढ रहा हूं गांव, खलिहान और पास से गुजरती नदी, ढूंढ रहा हूं खेतों से पुकारते रमई काका को, उन बच्चों को खेलते थे जो देर शाम तक मंदिर वाले टीले पर, दुलारे का कुलुहा और आमों की बगिया बसता था जिसमे मन, ढूंढ रहा हूं स्कूल से लौटते समय फेंकना पत्थरों को तालाब में और फिर चहकते बचपन को, घंटों नहाना फेंक- फांक कर बस्ता घुस जाना किसी भी घर में समझ कर अपना और खेलना, वहीं खाना कूदना नहरों…

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कहाँ खो गया नवगीत आंदोलन

एक समय हिंदी कविता, हिंदी गीतों में अपना राज करने वाला नवगीत आज अपनी पहचान खोता जा रहा है। नवगीत कुछ छापने के लिए ना तो कोई प्रकाशन स्थल है ना कोई काव्य मंच और ना कोई शंभूनाथ सिंह राजेंद्र प्रसाद सिंह अथवा ठाकुर प्रसाद सिंह जैसा नवगीत का ध्वजा वाहक। जो नव गीत कारों को इकट्ठा करे और नवगीत सृजन को आगे बढ़ाएं। नवगीत कारों को मंच दे। हिंदी में आज कोई ऐसा प्रकाशक नहीं है जो नवगीत संग्रह छापे। आज स्थिति ऐसी हो गई है कि नवगीत लिखे…

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गीत

  जब से तुम मुझको एकाकी जीवन-पथ पर छोड़ गये हो। कर की वरमाला जैसे तुम भरे स्वयंवर तोड़ गये हो। सांँसों के मनके – मनके पर मैंने तेरा नाम जपा था दिल का चित्रपटल खाली है जिस पर तेरा चित्र छपा था। तेरे बाद किसी मंदिर की प्रतिमा हमने छुई नहीं है मन – मंदिर में कोई मूरत प्राण प्रतिष्ठित हुई नहीं है। मेरे सारे ग्रह – नक्षत्रों की गति को तुम मोड़ गये हो। मैंने तो तेरे शरीर को पूजा की बाती माना था जीवन- पथ पर साथ चलोगी…

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स्यावक  ब्या

  घाम द्यो घाम द्यो स्यावक ब्या,            कुकुर   बीराव  बरेती   ग्या।                 उधली  घाम   उधली द्यो,                   स्यावक  ब्या    यसै  भ्यो। बादव भीना उथकै जा,     घामुली दीदी यथकै आ।     भाल दा भाल दा जल्दी आ,         बरेती  आ गई   तूरी   बजा।  हाथिक पूठि  में बर ज्यू सवार       बाघ देखिबेर  पड़ि गो  टूटाट ।         गुणील थमै…

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महिलाओं के साथ दोयम रवैये का अंत आख़िर कब होगा?

धर्म कोई भी हो, चाहे वह हिंदू, मुस्लिम, सिख और इसाई। सभी धर्म में महिलाओं के इज्जत और मान सम्मान की बात कही गई है। हमें हमारा समाज हमेशा यही बताता आया है कि महिलाओं की इज्जत करनी चाहिए। खासकर हिंदू धर्म में तो महिलाओं को देवताओं के समान माना गया है। लेकिन अगर इसी समाज में कोई अपनी बहन बेटी की ही इज्जत ना कर पाए तो वह कहीं न कहीं दुर्भाग्य की बात है। आएं दिनों महिलाओं पर होते अत्याचार मीडिया जगत की सुर्खियां बनते है। बावजूद इसके…

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