ऐ मेरी दुखमयी रातें क्यों बिलखकर रो न लेती ? हैं उमड़ते मेघ तेरे इस हृदय स्नेहिल पटल पर टूटते मिटते गरजते हैं बिखरते इस अचल पर क्यों न तुम खुद के बरसकर इस नयन में हो न लेती ऐ मेरी दुखमयी रातें क्यों बिलखकर रो न लेती ? क्षण भर उजाला बस लिए आकाश में बिजली चमकती वेदना के फिर अँधेरों में मेरी रातें सिमटती सिसकियाँ भर कर लिपटकर गोद में क्यों रो न लेती ऐ मेरी दुखमयी रातें क्यों बिलखकर रो न लेती ? खिड़कियों से झाँक आ…
Read MoreCategory: कविता
कैसे जन्म दूं कविता?
तुम्हें कैसे जन्म दूं कविता, पहले उस प्रसव पीड़ा से मुझे गुजरने तो दोे, जिससे जन्मती है कविता। कुम्हार की चाक पर मिट्टी सा मुझे गढ़ने दो फिर आग में झोंक कर कुछ दिन पकने तो दो, फिर रचूंगी कोई कविता। ब्रह्मांड की परिक्रमा कर मुझे आने दो अभी, तारों और पृथ्वी का तालमेल तो समझने दो। प्रेमिकाओं का विरह जीने दो, प्रेम में लालायित होने दो, प्रेमी के प्रथम स्पर्श का अहसास तो होने दो, फिर रचूंगी कविता। बच्चों को पहला कदम रखते हुए मुझे निहारने दो, आत्मा को…
Read Moreमैं ढूँढ रहा हूँ
मैं निरंतर हूं कश्मकश में, अजीब सी ऊहापोह में ढूंढ रहा हूं गांव, खलिहान और पास से गुजरती नदी, ढूंढ रहा हूं खेतों से पुकारते रमई काका को, उन बच्चों को खेलते थे जो देर शाम तक मंदिर वाले टीले पर, दुलारे का कुलुहा और आमों की बगिया बसता था जिसमे मन, ढूंढ रहा हूं स्कूल से लौटते समय फेंकना पत्थरों को तालाब में और फिर चहकते बचपन को, घंटों नहाना फेंक- फांक कर बस्ता घुस जाना किसी भी घर में समझ कर अपना और खेलना, वहीं खाना कूदना नहरों…
Read Moreगीत
जब से तुम मुझको एकाकी जीवन-पथ पर छोड़ गये हो। कर की वरमाला जैसे तुम भरे स्वयंवर तोड़ गये हो। सांँसों के मनके – मनके पर मैंने तेरा नाम जपा था दिल का चित्रपटल खाली है जिस पर तेरा चित्र छपा था। तेरे बाद किसी मंदिर की प्रतिमा हमने छुई नहीं है मन – मंदिर में कोई मूरत प्राण प्रतिष्ठित हुई नहीं है। मेरे सारे ग्रह – नक्षत्रों की गति को तुम मोड़ गये हो। मैंने तो तेरे शरीर को पूजा की बाती माना था जीवन- पथ पर साथ चलोगी…
Read Moreस्यावक ब्या
घाम द्यो घाम द्यो स्यावक ब्या, कुकुर बीराव बरेती ग्या। उधली घाम उधली द्यो, स्यावक ब्या यसै भ्यो। बादव भीना उथकै जा, घामुली दीदी यथकै आ। भाल दा भाल दा जल्दी आ, बरेती आ गई तूरी बजा। हाथिक पूठि में बर ज्यू सवार बाघ देखिबेर पड़ि गो टूटाट । गुणील थमै…
Read Moreजीबनर् महक्
कोशली कबिता- ********* (देवनागरी लिप्यंतरण) जीबनर् उषत् महक् टा महकि जउछे चार्’हिकुति पाएबार् के हेले इटा बन्’बार् के पड्’बा महम्’बती ….! दुइ दिनिआ मुनुष् जीबन् दर्’कार् नाईँ टँका संपति अछे दर्’कार् भाबर् हुरुद् भरा सत् पिर्’ती ….! नुहँन् किहे अल्’गाटा जिए हउ भि जेन् जाति सभे आमे समान् बलि हक् थि कहेमा पिटि छाति ….! संभब हेबा इ सबुटा जदि साहाजर् कामे जिमा माति सेबार् गुन् अछे जेते निजर् भित्’रे करुँ भर्’ति ….! ********* विश्वनाथ भुए केशाइपालि, भट्लि जिल्ला- बरगड़ (ओड़िशा) କୋଶଳୀ କବିତା – ଜୀବନର୍ ମହକ୍ ********** ଜୀବନର୍ ଉଷତ୍ ମହକ୍…
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