मैं ढूँढ रहा हूँ

पंकज मिश्र ‘अटल ‘

मैं निरंतर हूं
कश्मकश में,
अजीब सी ऊहापोह में
ढूंढ रहा हूं
गांव, खलिहान और
पास से गुजरती नदी,
ढूंढ रहा हूं
खेतों से पुकारते रमई काका को,
उन बच्चों को खेलते थे जो देर शाम तक
मंदिर वाले टीले पर,
दुलारे का कुलुहा और
आमों की बगिया
बसता था जिसमे मन,
ढूंढ रहा हूं
स्कूल से लौटते समय
फेंकना पत्थरों को तालाब में और
फिर चहकते बचपन को,
घंटों नहाना फेंक- फांक कर बस्ता
घुस जाना किसी भी घर में
समझ कर अपना
और खेलना, वहीं खाना
कूदना नहरों और खेतों की कुंडियों में
खाना डांट गांव वाले बड़के भैया से
बैठ कर नीबा के नीचे
खाना चटनी, रोटी और पीना मठ्ठा
मैं वह स्वाद ढूंढ रहा हूं
गर्मी में खाना चुस्की ओर कुल्फी
भैंस की पीठ पर पार करना नदी,
वाइस्कोप में देखना सिनेमा,
देखना तमाशा,
चुनाव में रिक्शों के पीछे भागना
मांगना झंडों और बिल्लों को
लगाकर घूमना बगैर जाने पार्टी को
घर पे बिटिया का आना
बिदाई के समय
पूरे गांव का बस पर छोड़ने जाना
साड़ी के पल्लू से
झांकते हुए भीगी आंखों से
रिश्तों को संभालना और
मिलना बिटिया का
अम्मा, ताई, भौजी, जिया और दाऊ से
दाऊ का छूना पैर और
आंखों से चू पड़ना मन
मैं ढूंढ रहा हूं,
कहीं कुछ खो सा गया है
छुट सा गया है यहीं कहीं
गुमसुम सा इस ‘कुछ’ को ढूंढ रहा हूं,
मनों में जन्मती दूरियां
बिखरता अतीत,
अपूर्ण सत्य,
रिश्तों की गरमी
और सिसकती स्मृतियों में
कहीं खो गया सब कुछ
घुल गया रात की स्याही में
खो गई खुशबू हवाओं में
नहीं हो पा रहा हूं सहज
छूटता जा रहा है कुछ
फैल रही है घुटन
झांक रहा है मन आंखों से
जम गए हैं सारे शब्द
हल्के धुंधलके को ओढ़े मैं
ढूंढ रहा हूं लगातार
अतीत को,
आंखों में नमी को,
पिघलते हुए मनों को
रात के अपनेपन को,
हवाओं के अल्हड़पन और
नदी – नालों के पागलपन को,
खो चुके सब कुछ में
ढूंढ रहा हूं खुद को
मिल सकता है कुछ न कुछ जरूर
यदि मैं ढूंढ सकूं खुद को
इसीलिए ढूंढ रहा हूं
सब कुछ को खुद में और
सब कुछ में खुद को लगातार
मैं ढूंढ रहा हूं।

@ पंकज मिश्र ‘अटल ‘
जवाहर नवोदय विद्यालय,सरभोग,बरपेटा,(आसाम),पिन कोड-781317
मोबाईल नम्बर–7905903204

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