गीत

 


जब से तुम मुझको एकाकी जीवन-पथ पर छोड़ गये हो।

कर की वरमाला जैसे तुम भरे स्वयंवर तोड़ गये हो।

सांँसों के मनके – मनके पर मैंने तेरा नाम जपा था
दिल का चित्रपटल खाली है जिस पर तेरा चित्र छपा था।
तेरे बाद किसी मंदिर की प्रतिमा हमने छुई नहीं है
मन – मंदिर में कोई मूरत प्राण प्रतिष्ठित हुई नहीं है।

मेरे सारे ग्रह – नक्षत्रों की गति को तुम मोड़ गये हो।

मैंने तो तेरे शरीर को पूजा की बाती माना था
जीवन- पथ पर साथ चलोगी जीवन का साथी जाना था।
अब तो तन – चंदन से तेरे कोई विषधर लिपटा होगा
अंतस का सौन्दर्य भूलकर सिर्फ देह में सिमटा होगा।

आंँखों से आंँसू का नाता जीवन भर को जोड़ गये हो।

काँटों के बदले में मैंने मन का नंदन वन सौंपा था
तुम्हें राधिका ही माना था दिल का वृंदावन सौंपा था।
किन्तु कृष्ण तो राजा होकर कहांँ राधिका को पा पाये?
जिसको वंशी में गाते थे राजमहल में ना ला पाये।

नाहक निर्दय कंकड़ियों से नेह – सुधा-घट फोड़ गये हो।

डॉ०राघवेन्द्र मिश्र ‘प्रणय’
असिस्टेंट प्रोफेसर हिन्दी
महाराजा बिजली पासी
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालयआशियाना, लखनऊ
rmpranay.2003@gmail.com
मो०- 9450644864

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