पठनीयता की नजर में हरिराम द्विवेदी

हरिराम द्विवेदी भोजपुरी कविता का एक सुपरिचित नाम है। 12 मार्च 1936 को जन्मे 85 पार के द्विवेदी जी भोजपुरी साहित्य-जगत में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। तीन दशकों तक वे आकाशवाणी की प्रसारण-सेवा से जुड़े रहे। उनकी लोकप्रियता का प्रमाण कुछ इस रूप में है कि लोग उनको ‘हरि भैया’ कहते हैं। सहज स्नेहिल व्यक्तित्व के धनी हरि भैया अपने गीतों से जनमन को मोह लेते हैं। कहना चाहूँगा कि उनके गीतों में यह यह ‘मोह’ कई बार आया है। बल्कि यह भी कहना चाहूँगा कि ‘मोह’ शीर्षक एक स्वतंत्र गीत भी है जिसमें एक मैना है जिसके बारे में लिखते हैं कि ‘मोरी मयना के मोहिया सेयान’। उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जनपद के शेरवाँ गाँव के द्विवेदी जी का ज्यादा समय बनारस में बीता है। सुबह तड़के जगना, पैदल गंगास्नान को जाना, दर्शन-पूजन और मित्र-मिलन इनके जीवन का अहम हिस्सा रहा है। देखने से ही कोई इनके बारे में कह सकता है कि ये पूजा-पाठ वाले व्यक्ति हैं। धार्मिक हैं। यह भी आसानी से कहा जा सकता है कि पंडित हैं, ब्राह्मण हैं। कुछ लोग इनको पंडित जी कहकर सम्बोधित भी करते हैं। जिनसे इनकी निकटता है उनको देखते ही खुद जाकर मिलते हैं, बोलते हैं, बिना किसी हिचक के। बिना किसी संकोच के। इसका रत्तीभर भी ख्याल नहीं करते कि वय में किसकी क्या पोजीशन है। नया कोई आदमी क्या जान सकेगा कि यह आदमी कितना सरस है, कितना जिंदादिल है, कितना ‘मोही’ है। किसी से उछाह से मिलना क्या आज की तारीख में सबके वश में है।

द्विवेदी जी की खासियत यह भी है कि ये गाते बहुत कमाल के हैं। इनको कई बार सुनने का मौका मिला है। शुरू में तो इनका हुलिया देख मैं कुछ अनमने भाव से मिलता रहा। पर, ‘गते-गते’ (धीरे-धीरे) वह अनमनापन जाता रहा। उनकी तरफ से भी कोई परहेज जैसी बात कभी नहीं दिखी। मैंने उनसे ही उनके गीतों को सुना, उनके संग्रहों को पढ़ा। जितना रससिक्त हुआ, जितना मोह सम्पन्न हुआ, उतना ही झुँझलाया भी कि एक ही भाव को लेकर द्विवेदी जी ने न जाने इतने सारे गीत क्यों रच डाले। बदरा (बादल) को न जाने कितनी बार गीतों का विषय बनाया। पर, यहीं पर यह सुखद आश्चर्य भी हुआ कि उस बदरा से बरसने के निवेदन की अनेक मुद्राएँ इनके गीतों में दिख पड़ीं। कई तरह से बदरा से बरसने को कहा। बोरियत तब आनंद से जुड़ गई। सोचने लगा कि भूख तो रोज लगती है, खाना भी हम रोज खाते हैं, एक ही चीज बार-बार खाते हैं और उसका स्वाद रोज नया लगता है। उससे ऊब नहीं होती। जिसको हम एकरसता कहते हैं, वह एकरसता भी अविवेचित नहीं है। उसकी एक वर्गीय समझ भी होनी ही चाहिए। भोजन में एकरसता, श्रम में एकरसता आदि के साथ-साथ काव्यगत एकरसता को भी समझने की जरूरत है। हरिराम द्विवेदी के गीतों के संदर्भ में जिस भावगत अथवा विषयगत एकरसता की बात चली है, उसे दुहराव कहना ज्यादा समीचीन है और उल्लेखनीय है कि उसका लोकजीवन और उसकी लोकसाहित्यिक अभिव्यक्तियों से भी सम्बन्ध है। कवि का लोकजीवन और लोकसाहित्य से अंतरंग सम्बन्ध दिखता है और लगता है कि कवि ने लोकजीवन को जितना प्रत्यक्षतः समझा है उतना ही, खासकर उसकी लोकगीतात्मक अभिव्यक्तियों के जरिए भी। दोनों की अन्विति ही उनके गीतों में सृजित है। उनके ज्यादातर आलोचकों ने बस इस एक बात का ही प्रमुखता से उल्लेख किया है कि उनके गीतों में लोकगीतों जैसी मिठास है। साथ ही, लोकछन्दों को बरता है। उन लोगों ने यह समझने की कोशिश नहीं कि लोकगीतों में जो मिठास होती है, दरअसल वह केवल मिठास ही नहीं होती। उस मिठास में बहुत कुछ होता है। जीवन की तिक्तता, जीवन के संघर्ष, दुःख, सुख आदि इस तरीके से कहे गए होते हैं कि उनको अलग कर समझ पाना सहज नहीं होता। ठीक चिड़ियों के गान की तरह।

हरिराम द्विवेदी को आज हमें इस रूप में भी देखने की जरूरत है कि लंबे अरसे तक गीत लिखने वाला यह शख्स अश्लीलता को सिरे से खारिज करता रहा। उसके प्रवाह की पकड़ में नहीं आया। यह बात उनके कई संग्रहों के गीतों को देखते हुए कह रहा हूँ। इस कवि का सम्बंध काशी सहित देश के अनेक काव्यमंचों से रहा है। रेडियो स्टेशनों से तो रहा ही है। काशी में रहते हुए ‘सांढ़’ और ‘धकाधक’  जैसे उपनाम न रख हरि भैया ही रहे। ये पॉपुलर कल्चर और पॉपुलरिटी से बचते रहे। रामजियावन दास ‘बावला’, कैलाश गौतम, चंद्रशेखर मिश्र, जुगानी भाई जैसे अनेक प्रसिद्ध कवियों से इनका बड़ा ही मधुर सम्बन्ध रहा है।  दूसरी तरफ यह भी देखने में आता है कि लोकसाहित्य के मर्मज्ञ विद्यानिवास मिश्र से भी इनका रचनात्मक संवाद रहा है। विद्यानिवास जी ने इनके एक संग्रह ‘नदियो गइल दुबराय’ की भूमिका भी लिखी है। काशी, गंगा, काशी की गलियाँ,  शिव, अघोरपंथ, स्त्री, बालक, प्रकृति, नदी, कोयल, काग, चुचुहिया, गाँव, बैल, गाय, कुत्ते, खेत, किसान, धान, सरसों, गेहुम, मटर, आम, महुआ, बाँस-बँसवार, आँगन, मुंडेर, ओसारा, जाड़ा, गरमी, बरसात, किंवाड़, सिकड़ी, रिश्ते-नाते, सावन, कजरी, लोकपर्व, लोकविश्वास आदि इनके गीतों में बारम्बार आते हैं। यहाँ तक कि बरसात की कीचड़ और कुटकुरा (सूखी जगह) की तलाश भी देखी जा सकती है। खपरैल घर की छाजन और धरन भी कोई चाहे तो देख ले। यहाँ रूठना-मनाना भी है। इंतजार भी है। मनोविनोद भी खूब हैं। रिश्तों का इतना सघन और आत्मीय उच्चार है कि अश्लीलता के लिए कोई स्पेस ही नहीं रह जाता। बाजार बीच रहे, बाजारू न खुद बने, न गीतों को बनने दिया। ‘अथुआ’ लिखते रहे और ‘अथुआ’ को किनारे करते रहे।

हरिराम जी के गीत लोकगीत की तरह लगते हैं। लोकगीतों के रंग और लय में लिखे होने के चलते ऐसा लगता है। हरिराम जी के गीतों के सम्बंध में लिखते हुए विद्यानिवास जी ने लिखा भी है – “…लेकिन ओही गीतन (लोकगीत) के रंग में, लय में, भाव में कविताई कइल कवनो आसान काम नाहीं हवे। हरिराम द्विवेदी अइसने काम के संकल्प लिहलें। ओसे उनके कंठ के बड़ी धूम मचल।” (नदियो गइल दुबराय)। लोकगीतों के तर्ज पर गीत रचना लोकगीतों की नकल बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। फॉर्म बेशक लोकगीतों से हों, पर, विषय में नयापन और समसामयिकता अनिवार्य शर्त है। ऐसा नहीं होने पर वे गीत लोकस्वीकृति पाने से अवश्य ही रह जाएँगे। उल्लेखनीय है कि पारम्परिक गीतों में भी समय, समाज, परिवेश और मानसिकता में आए बदलावों की मौजूदगी होती है किसी न किसी रूप में और इसी वजह से वे गीत लोक में बने रह पाते हैं। आधुनिक गीतकार, यदि वह भोजपुरी जैसी जनभाषा का है, तो उसे इस तथ्य को हमेशा ध्यान में रखना होगा। अनेक गीतकारों के गीत इस बात के प्रमाण हैं कि उन्होंने फॉर्म तो बेशक पारम्परिक गीतों से लिया पर, विचार और संवेदना में वे बिल्कुल आधुनिक हैं। युगीन वास्तविकताओं को अपने गीतों का विषय बनाया है। लोकस्वीकृति के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है। द्विवेदी जी इस बात को लेकर जितने सजग हैं उतने ही बेपरवाह भी। अनेक गीत हैं जिनमें आधुनिक जीवन-संदर्भो की अभिव्यक्तियाँ हैं और कई तो ऐसे भी हैं जो लोकगीतों की कॉपी मात्र होकर रह गए हैं। एक अनौपचारिक बातचीत में विद्यानिवास जी ने इस बात की तरफ संकेत भी किया था।

द्विवेदी जी के गीतों पर पुस्तकों की भूमिका के रूप में ही सही, विचार करने वालों में विद्यानिवास मिश्र जी के अलावा कैलाश गौतम, युगेश्वर, वशिष्ठमुनि ओझा,धर्मशील चतुर्वेदी, प्रकाश उदय, बुद्धिनाथ मिश्र, रमापति शुक्ल, नीरजा माधव हैं। द्विवेदी जी पर केंद्रित ‘भोजपुरी साहित्य सरिता’ (पत्रिका) का एक विशेषांक भी प्रकाशित हुआ है। इस विशेषांक में द्विवेदी जी व्यक्तित्व और उनकी रचनाशीलता को केंद्र कर कई आलेख हैं। द्विवेदी जी की कविताओं और गीतों पर बात करते हुए कई ऐसे विचारक हैं जिनको ऐसा लगता है कि प्रगतिशील आलोचना और आलोचकों ने द्विवेदी जी के प्रति उपेक्षा बरती है। वे चिंतित दिखते हैं। यहाँ यह प्रश्न है कि इन कुछेक भूमिकाओं और उड़न्त टिप्पणियों के अलावा उन लोगों ने हरिराम जी के बारे में आखिर ऐसा क्या लिख डाला है! ‘हरि भैया की काव्यदृष्टि’ पर यदि बुद्धिनाथ मिश्र कायदे से टिककर बात करते तो जरूर हरि भैया का कविकर्म और महत्व उनके मार्फ़त समझ में आता। पर नहीं, उनको तो ‘प्रगतिशील धुरंधरों’ की ‘एकांगी दृष्टि’ की चिंता है। समस्या हरिराम जी के यहाँ चाहे जिस रूप में हो, उससे अधिक इस तरह के टिप्पणीकारों के यहाँ अधिक है। हरिराम जी के काव्यगत विशेषताओं पर ठोस तरीके से बात करने के बजाय ऐसा लगता है कि अपनी टिप्पणियों से उनको उपकृत कर रहे हों। पुस्तकों की भूमिका लिखते हुए समय-समय पर विद्यानिवास जी ने बहुत सटीक टिप्पणियाँ की हैं। ‘हे देखा हो!’ पर लिखते हुए प्रकाश उदय ने द्विवेदी जी के कविकर्म पर ठोस ढंग से बात की है। लोकधुनों में गीत लिखने के जिस खतरे की तरफ भी विद्यानिवास जी ने संकेत किया है वह छिछोरपन का है, अश्लीलता को लेकर है। आज उनकी यह चिंता कितनी वाजिब लग रही है। हरिराम जी इससे बाहर हैं, यह खुद विद्यानिवास जी के लिए सुकून का मामला है। प्रकाश उदय हरि भैया की प्रतिभा को ‘बहुवस्तुपरसी प्रतिभा’ कहते हैं। लिखते हैं -“हरि भइया के ई जवन बहुवस्तुपरसी प्रतिभा बा तवन इहाँ-उहाँ-जहाँ-तहाँ त बड़ले बा, तहँवा त जइसे उपट परत बा जहँवा ऊ अपना अगल-बगल के बिलोप भइल चीजन के चिंता में परत बाड़े! अंबार लेखा लाग जाता अइसन चित्रन के जवनन के बुला अब चित्रने में रह जाय के बा- सारी, घोड़सारी, चरनी, अहरी, नाद, नाधा, जुआ, हरिस, हर, पलिहर, खराई, कोठिला, कुंडा, छोण,……।”(हे देखा हो!)। ‘भोजपुरी साहित्य सरिता’ के हरिराम द्विवेदी विशेषांक अंक में सदानंद शाही ने उनको भोजपुरी का ‘हीरामन’ कहा है। रविकेश मिश्र ने ‘पातरि पीर’ के बारे में विचार किया है- “पातरि पीर’ हरि भइया के आत्मकथात्मक संकेतन के काव्यात्मक सृजन हौ। एकइस उपशीर्षकन में सहेजल इयादन के पंचमेल सवाद हौ।” (भोजपुरी साहित्य सरिता, पृष्ठ-41, अक्टूबर 2018)। हरिराम जी ने बरवे छंद को इस ‘पातरि पीर’ में साधा है। रविकेश मिश्र लिखते हैं- “अवधी अउर ब्रजभाषा में ई छंद खूब रचाइल।भोजपुरी में ए छंद के साधे-निभावे क जिम्मा हरिराम द्विवेदी पर आयल।”  (भोजपुरी साहित्य सरिता, पृष्ठ-40)। मार्च 2011 में हरिराम जी के 75 वें जन्मदिन पर ‘रस-कलश’ नामक एक अभिनंदन ग्रन्थ भी प्रकाशित है। इसके संपादक हैं रामसुधार सिंह। इस ग्रन्थ के आधार पर भी, अभिनन्द ग्रन्थ की सीमाओं के बावजूद, द्विवेदी जी के व्यक्तित्व और कविकर्म के वैशिष्टय को समझा जा सकता है।

हरिराम जी प्रकृति-प्रेमी कवि हैं। सुबह, साँझ, अंधियारी रात, चांदनी रात, चाँद, सूरज, बाग, पेड़, तितली, नदी, पोखर, घास, शीत, जाड़ा, गर्मी, बरसात सबके बारे में लिखते हैं। ये उनकी कविताओं में अपने पूरे वजूद के साथ आते हैं। इनको देखता हुआ और इनसे प्रभावित होता हुआ मनुष्य कविताओं में दिखता है। ‘नदियो गइल दुबराय’ कोई यूँ ही नहीं लिख देता। आदमी के बारे में और मवेशियों के बारे में यह टिप्पणी अक्सर सुनने को मिली है। नदी भी दुबली होती है, यह तो हरिराम जी ही कहते हैं। पोषण के अभाव में जैसे आदमी और मवेशी दुबले होते जाते हैं, पानी के क्रमशः कम होते जाने से नदियाँ भी दुबली हो जाती हैं। इसे कवि के कहने का तरीका भर न समझा जाए। कवि साल के कई ऋतुओं का वर्णन करता है। नदी के भरे-पूरेपन को भी देखता है और उसके दुबलेपन को भी। कवि पहले आर्द्रा नक्षत्र में घुमड़ते बादलों को देखता है, बादलों से बरखा की उम्मीद और बरखा से जग की सम्भावित खुशहाली का जिक्र करता है –

“अदरा से बदरा, बदरवा से बरखा हो, बरखा से जग उजियार।”

दूसरी पंक्ति है-

“बिरही परनवाँ के सगरे सपनवां पै बून-बून बनेला अंगार।”

यहाँ कालिदास के यक्ष की याद स्वाभाविक है। कवि उमड़-उमड़ घिरते बादलों और उनके बरसने का जिक्र करता है। बादलों के बरसने से धरती का हिया तो जुड़ा जाता है, पर विरहियों का विरह बरकरार रहता है। बादलों के उमड़-उमड़ आने को कवि भोजपुरी के टिपिकल शब्द ‘ओनइ-ओनइ घिरि अइलैं’ कहता है। भोजपुरी के टिपिकल शब्दों के प्रयोग से कवि बरसात की समां बाँध देता है। ‘झिरहिर बुन्नियाँ’, ‘झपसी अन्हरिया’, ‘छकर-छकर मारै गरजइ बरबस’ लोकजीवन में खूब प्रचलित हैं। नदी जो दुबली हो गई है वह भीषण गर्मी के चलते। बरसात जो हुई तो कवि लहरों की ठनगन को भी देखता है-

“नदिया में ठनगन करैलीं लहरिया हो भहरैला अररै करार।”

बरसात के बाद जाड़े के पाला का वर्णन हुआ है जिसमें ‘हिलि उठै पंजरी कै हाड़’। लेकिन इसी मौसम में –

“ताल गदोरिया प गह-गह पियरी में भई सरसोइया सयान

धीरे-धीरे रधिया चले भरी गगरी हो लखि-लखि लजियो लजाय।”

भोजपुरी काव्य-रसिकों को यहाँ क्यों न ‘बावला’ याद आएँगे!। जाड़ा बीतने पर गर्मी आती है धीरे-धीरे। सिवान की फसलें पक गई हैं। कटनी शुरू हो गई है –

“कटली फसिलिया सिवनवाँ उदसलैं त भरल-भरल खरिहान

दँवरी के फेरवा में सुखवा कै सपना देखि-देखि हुलसै किसान

तलवा पोखरिया कै फटलैं करेजवा कि धरती के फटली बेवाय

सगरा त सूखलैं तपनियाँ के लगले से नदियो गइल दुबराय।”

ताल गदोरी पर सरसों की गह-गह पियरी और धरती की फटी बिवाई अनूठे बिंब हैं। रब्बी की फसल कटने के बाद धरती में फटी दरारों को जिसने नहीं देखा है, वे धरती की बिवाइयों को नहीं समझ सकेंगे। प्रकृति,खेती-किसानी, आम जिंदगानी के आपसी लगाव, उसकी हलकानी – परेशानी का बहुत सजीव चित्रण यहाँ हुआ है। कवि ने तपन से सागर के सूखने की बात कही है और नदी के भी दुबराने की। किसी को सागर के सूखने को लेकर आपत्ति हो सकती है। पर, ध्यान रहे, साहित्य और उसमें भी भोजपुरी साहित्य और खासकर लोकसाहित्य में ऐसे प्रयोगों की कमी नहीं है। हरि भैया ने नदी के दुबराने की बात कही है। पर, अब तो नदियाँ सूख चली हैं। जंगल कटते जा रहे हैं। महुआ, इमली, बरगद,पीपल, पाकड़, नीम, गूलर, सिहोर,चिलबिल आदि बहुत कम होते गए हैं। आँगन के पंछी गौरैये, कौवे, सुग्गे निरन्तर कम होते गए हैं। पर्यावरणकर्मी सुंदरलाल बहुगुणा का निधन हो चुका है। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ वाले अनुपम मिश्र नहीं रहे। पूँजीवादी विकास मॉडल ने पर्यावरण-पारिस्थितिकी को तहस-नहस कर डाला है। कोरोना वायरस की चपेट में पूरी दुनिया है। ऐसे में हरि भैया और इन जैसे कवियों की इस तरह की कविताओं का इकट्ठा पाठ जरूरी है।

द्विवेदी जी की एक कविता है ‘पनिया कै मछरी सुनावैले कहानी।’ यह उनके ‘अँगनइया’ संग्रह की अंतिम कविता है। यह एक ‘पद्यकथा’ कथा जो एक लोककथा पर आधारित है। कविता में मछली एक कहानी सुना रही है। सुननेवाला एक ‘बबुआ’ है। कहानी धीरे-धीरे चलती है धीरे-धीरे सुनने के निवेदन के साथ। कहानी में एक राजा और उसकी दो-दो रानियाँ हैं। इस कविता में भी राजपरिवार के ईर्ष्या-द्वेष के चलते पर्यावरण संकट के ब्यौरे हैं। तालाब, पेड़, जंगल, जीव-जंतु सब संकट में पड़ जाते हैं और अंत में राजा भी। ‘पहाड़-पेड़-पानी’ कविता में तो इन सबों के बचाने की गुहार है। इसी ‘अँगनइया’ संग्रह की एक उल्लेखनीय कविता है ‘कुहरा कै झील’। जाड़े के कुहरे को कवि झील कहता है जिसने अपने आगोश में गाँव और शहर को तो ले ही लिया है, सूरज को भी नहीं बख्शा है।

प्रकोप ऐसा कि हाथ को हाथ नहीं सूझता-

“अपने हाथ न लउके छोड़ा आन केहू कै बात

केतनो ओढ़ना ओढ़ीं तब्बो ठिठुरल बीतै रात

केसे का बतलाईं केतना दिनवा भयल पतील।”

कुहरे की झील को कवि गरीब- किसान की आँखों देख रहा है-

“ओकर सोचीं दिनभर जाँगर पीट घरे जे आवै

कउनो तरी परानिन खातिर हरदी नून जुटावै

रोटी कइसे बनी गरीबी में बा आटा गील।”

आगे कवि यह भी कहता है कि

“पाला मरलस जउने खेत दियायल नाहीं पानी।”

फसलों को पाला से बचाने के लिए पटवन जरूरी है। कवि पाला से फसलों के बचाव की इस लोकवैज्ञानिक विधि से सुपरिचित है।

कवि का चित्त सुबह के चित्रण में खूब रमा है। उसको वह सुबह कहता है, भोर कहता है, बिहान कहता है। सुबह को वह जीवन और प्रकृति की पूरी सरगर्मी के साथ चित्रित करता है। पूरब में लाली छाती है, पंछी चहकते हैं, गायें रंभाती हैं, किसान अपने कर्मों में रत होते हैं, भजन-कीर्तन होते हैं, पेड़ों की फुनगी पर सूर्य की किरणें पत्तों संग डोलती हैं, दूब की नोकों पर ओस की बूँदें झिलमिलाती हैं। गृहिणियाँ बर्तन-बासन करती हैं, श्रमिक काम पर निकलने को तैयार होते हैं। एक गीत देखें-

“बड़े भोरे चिरइया बोलै कि बोलिया मीठी लगै

दुअरे पर निबिया की डारी

राग भोरहरी अति सुखकारी

धीरे-धीरे मिसिरिया घोलै कि बोलिया मीठी लगै।

पंछी मंगल गीत सुनावैं

गीत सुना के सभे जगावैं

सुनि लागै डहरिया डोलै कि बोलिया मीठी लगै।”

द्विवेदी जी ‘मोह’ की तरफदारी के कवि हैं। आसक्ति के कवि हैं, बंधन के स्वीकार के कवि हैं। यह नेह-नातों का बंधन है। अपने ‘आत्म’ को सदा मुक्त रखने के हिमायती हैं। आसरा की ज्योति जिन नयनों में बसती है वह नयन न भींगे और यदि नयन जो भींग भी जाए तो नयनों में पलने वाले सपने न भींगे। किसको बचाए भीगने से इस द्वंद्व के बीच एक निवेदन-

“बसै जहवाँ असरवा के जोति नयनवाँ न भींजइ हो

चाहे भींजै त भींजै नयनवाँ सपनवां न भींजइ हो।”

हरिराम जी से यह गीत सुनने का अपना आनंद है। आज की तारीख में जब आदमी-आदमी के बीच नेह-नातों के लिए जगह कम होती जा रही है, हरिराम जी के गीतों को सुनते हुए हृदय प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। हम केवल स्मृतियों में ही नहीं जाते, अपने वर्तमान को भी टटोलते हैं। इन गीतों को सुनना, गुनगुनाना खोये को पाने और पाये को बचाने को सोचने जैसा है। खुद को गुनगुनाने जैसा। ‘मोह’ को स्पेस देने जैसा।

डॉ  बलभद्र

गिरीडीह कालेज

गिरीडीह

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