हिन्दी और भोजपुरी के प्रख्यात रचनाकार बलभद्र जी के समालोचनात्मक आलेखों के संग्रह-“भोजपुरी साहित्य
:देश के देस का”को सर्वभाषा ट्रस्ट,नई दिल्ली ने छापा है।लेखक के पन्द्रह हिन्दी आलेख इसमें संकलित हैं।देश के ‘देस’ की कविता-भोजपुरी, भोजपुरी में विस्थापन के काव्य -प्रसंग,भोजपुरी कविता का जनपक्ष,सत्ता-व्यवस्था पर भोजपुरी कविता का व्यंग्य, भोजपुरी कविता के संवादधर्मी जन-संदर्भ, लोक-साहित्य जीवनधर्मी संकल्पों की विरासत, भोजपुरी लोककथा:कहना-सुनना-समझना, लोकगीतःलेखा-देखा, जिन्दगी की महिमा का गायक,पीड़ा,प्रश्न और प्रतिकार की गूंज, तत्समता और तद्भवता के बीच,भोजपुरी का गद्य-बल,विभाजन को खारिज करते मुस्लिम लोकगीत , ‘बटोहिया’ और ‘अछूत की शिकायत’ के सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ और सरोकार एवं युवा-मन की प्रतिक्रियाओं में उभरती जिन्दगी की तस्वीर-जैसे शीर्षकों के अन्तर्गत आधुनिक भोजपुरी साहित्य की पड़ताल की कोशिश की गई है।कई आलेख पहले ही किसी न किसी पत्रिका में छपे हुए हैं,मगर अधिकतर भोजपुरी पत्रिकाओं की अल्प प्रसार संख्या के मद्देनजर इन सबका एक किताब के रूप में सामने आ जाना बहुत जरूरी था।
किताब को पढ़ते हुए सुधीर सुमन लिखते हैं-“भोजपुरी की कविता पर हिन्दी में लिखना एक तरह से उसकी साहित्यिक दावेदारी को बड़े दायरे में ले जाने का काम है।” काश इस बात को भोजपुरी के महारथी भी समझ पाते!वे तो डंटे लेकर पहरेदारी करेंगे कि भोजपुरी के ‘देस’ में हिन्दी ‘देश’ का कोई घुस न आये।ऐसी पहरेदारी हिन्दी में कभी नहीं हुई।मैथिली में भी नहीं, मगर भोजपुरी में हो रही है ।निश्चय ही यह मनोविज्ञान कूपमंडुकत्व और बाहरी दुनिया से अपरिचय को ही बढ़ावा देगा।सिर्फ भोजपुरी बोलने – रचने वाले ही भोजपुरी के मौलिक रचनाकार होंगे-यह दंभ आत्मघाती सिद्ध होगा।जब कोई कहता है कि सिर्फ दलित ही मौलिक संवेदनाओं के साथ दलित साहित्य रच सकते हैं तो आपकी पिनपिनाहट देखते ही बनती है, लेकिन जब आप अपनी फतबेबाजी से हिन्दी /उर्दू/अंग्रेजी/संस्कृत या अन्य किसी भारतीय भाषा के सर्जक को भोजपुरी साहित्य रचने में हतोत्साहित करते हैं तो उसे कैसे जायज मान लिया जाए?केदार जी ऐसी ही मानसिकता के प्रति आशंकित थे तभी तो उन्होंने हिन्दी और भोजपुरी ,चाहें तो कह लें देश और देस या देश और घर में लगातार आवाजाही की जबरदस्त वकालत की थी-
“हिंदी मेरा देश है
भोजपुरी मेरा घर
….मैं दोनों को प्यार करता हूं
और देखिए न मेरी मुश्किल
पिछले साठ बरसों से
दोनों को दोनों में
खोज रहा हूं।”(देश और घर/सृष्टि पर पहरा’)
हिन्दी में अज्ञेय, अरुणकमल, हरिवंश राय बच्चन और उर्दू में फिराक तथा मैथिली में बाबा नागार्जुन जैसे दर्जनों लेखकों ने अगर दखल बनायी तो उन्हें तो हिन्दी ,उर्दू या मैथिली के तथाकथित ‘मौलिक रचनाकारों’ का कोई विरोध नहीं झेलना पड़ा। फिर आप भोजपुरी को क्यों सिर्फ संस्थानों और उसके प्रचंड पहरेदारों के हवाले कर देना चाहते हैं।हिन्दी आज जितनी भी फली-फूली है ,उसमें विश्वविद्यालय के हिन्दी के आचार्यों का कितना योगदान रहा है,यह एक बेहद दिलचस्प शोध का विषय होगा।
भोजपुरी तो एक लोकभाषा है।हीरा डोम,भिखारी, महेन्दर मिश्र,दुर्गेश अकारी,रमता जी,मास्टर अजीज जैसे अनगिनत रचनाकारों ने जन-संवेदनाओं व सरोकारों से जुड़ी खूब रचनाएँ सौपी हैं।लेकिन इनके व्यापक मूल्यांकन के लिए जितनी समझदार और बहुआयामी दृष्टि की आवश्यकता होगी , वह इतर भाषाओं के अद्यतन साहित्यिक विकास को देखे-परखे बगैर संभव नहीं है।भोजपुरी केवल हूलि द, रेल द,ठेल द,भज ल,भजवा ल,फाड़ि द,चीर द,झार द,उखाड़ द- की भाषा नहीं रही।इसकी थाती तो धान रोपती महिलाओं के कंठ से फूटनेवाले वे गीत रहे हैं जिनमें पसीने बहाती धनरोपनी करनेवाली जनाना मजदूर की पीड़ा को वाणी मिली है,वैसे सोहर गीत रहे हैं जिनमें हिरनी अपने बच्चे की खाल भर कोशिला रानी से लेकर अपने मन को तसल्ली देना चाहती है।भोजपुरी इस मर्मान्तक पीड़ा को स्वर देनेवाली भाषा है।भोजपुरी लोक- साहित्य की यही मौलिक संवेदनाएं आज उसे संजीवनी प्रदान कर रही हैं।
बलभद्र ने अपनी समालोचना को शुरू से ही बिल्कुल साफ नजरिये से विकसित किया है।वे लिखते हैं-“भोजपुरी कविता की यह खासियत है कि वह अपनी जगह छोड़कर बात करने को तैयार नहीं होती।”अर्थात उसे अपनी जमीन पर अटूट भरोसा है। भोजपुरी कविता जहाँ खड़ी है,जिनके लिए खड़ी है,जिनके बूते खड़ी है- उनके लिए अखंडित आस्था और प्रतिबद्धता ही उसका मूल चरित्र है।भोजपुरी कविता का ही चरित्र बलभद्र में भी है।एकबार जो चीज ,चिंतन,राजनीति और विचार बद्धमूल रूप में उनमें घर कर गये ,उनसे विचलन उन्हें मंजूर नहीं।वे अपनी संवेदना को समाज की आखिरी कतार के बेबस-लाचार और पीड़ित-शोषित जन से जोड़ चुके हैं।इनके हितों की अनदेखी पर वे तिलमिला उठते हैं।यही तिलमिलाहट औरों में जब उन्हें नहीं मिलती तो उसे खारिज तक करने में भी बलभद्र के आलोचक को तनिक देर नहीं लगती।
इस पुस्तक का शीर्षक रोचक और आकर्षक है।बलभद्र कहते हैं-“देश को देखना-समझना अपने आप में एक बड़ी बात है,पर ‘देश’के भीतर देस देखना-अपने गांव घर को देखना कम बड़ी बात नहीं है।हिन्दी में यह देश देखना एक आन्दोलन के तौर पर चिह्नित हैऔर भोजपुरी में तो यह सहज ही घटित है। ” हिन्दी और भोजपुरी की जमीन में कोई बखरा नहीं लगा हुआ है।यही कारण है कि कोई हिन्दी वाला भी भोजपुरी की ताकत को कमतर नहीं आंक सकता ,दूसरी ओर भोजपुरी को भी अपना दामन फैलाने के लिए हिन्दी से बेवजह दूरी बनाने की भला क्या जरुरत?(भोजपुरी का इतिहास या चरित्र ऐसा कभी रहा भी नहीं है।)पुस्तक की भूमिका में सुधीर सुमन का भी कहना है-“जनभाषाओं की ताकत लोक है और हिन्दी की ताकत लोकभाषाएं।यदि इनमें से कोई कमजोर होता है या इनके बीच के रिश्ते टूटते हैं तो सबपर उसका असर पड़ता है,ठीक उसी तरह जैसे जन,जनभाषा और वास्तविक जनतंत्र के बगैर देस या कोई देश मजबूत नहीं हो सकता।” बलभद्र की समालोचना में सचमुच पीड़ा, प्रश्न और प्रतिकार का स्वर प्रखर है।यहाँ जन की पीड़ा है,उसी के प्रश्न हैं और प्रतिकार की शक्ति भी उसी की है।जहाँ ये सबकुछ एकसाथ हैं उसकी शक्ति,गति और मति को नजरअंदाज करना नामुमकिन हो जाएगा।
कुल मिला जुलाकर देखा जाए तो भोजपुरी गीत,कविता, लोकगीत, लोककथा, भोजपुरी समाज,संस्कृति -इन सबको एक मुकम्मल,माकूल और वाजिब नजरिये से देखने की एक समझदार दृष्टि तो यह किताब देती ही है।और चाहिए भी क्या?
बहुत शानदार और जानदार लेखन।मगर ये सब तो आपके पुराने वाले हैं बंधुवर ! अब नयी दुनिया के गझिन तिलिस्म को भी तोड़ना तो बहुत जरूरी है, चूंकि यह बहुरूपिया दौर है, मसलन हर तरह के उपकरणों और उपचारों को आजमाना होगा।
बधाई
बड़े भाई।
- डॉ सुनील कुमार पाठक
पटना